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भक्ति काव्य में समूचे जीवन का सार, जिसमें हैं भूख, दुःख, पीड़ा, संताप और उदासी के तमाम बिंब

बीएचयू में आयोजित प्रो.शुकदेव सिंह की स्मृति में समारोह में प्रो.अरुण कमल का उद्बोधन

प्रो.कमल ने कहा कि कबीर, सूर, तुलसी और मीरा आदि की रचनाओं में जो शब्द आए हैं उन शब्दों को देखिए तो समय और समाज की सच्चाई दिखाई देगी। भक्ति कविता भाषा और कला की दृष्टि से उच्चतर कविता है। वह सिखाती है कि मनुष्य का सर किसी मनुष्य के समाने नहीं झुकता है। प्रो.कमल ने कहा कि कबीर, सूर, तुलसी और मीरा आदि की रचनाओं में जो शब्द आए हैं उन शब्दों को देखिए तो समय और समाज की सच्चाई दिखाई देगी। भक्ति कविता भाषा और कला की दृष्टि से उच्चतर कविता है। वह सिखाती है कि मनुष्य का सर किसी मनुष्य के समाने नहीं झुकता है।

देश की सांस्कृतिक राजधानी वाराणसी में प्रो.शुकदेव सिंह की स्मृति में आयोजित समारोह में विख्यात कवि एवं आलोचक प्रो.अरुण कमल ने कहा कि भक्ति काव्य समूचे जीवन का काव्य है, जिसमें भूख, दुःख, पीड़ा, संताप और उदासी के तमाम बिंब हैं। भक्ति काव्य सत्ता और समाज का मुखर प्रतिकार करता है, तो जीवन के विकल्प भी सुझाता है।

काशी हिंदू विश्वविद्यालय के मालवीय मूल्य अनुशीलन में आयोजित भव्य समारोह में ‘भक्ति काव्य क्यों पढ़ें?’ विषय को रेखांकित करते हुए प्रो.कमल ने कहा कि कबीर, सूर, तुलसी और मीरा आदि की रचनाओं में जो शब्द आए हैं उन शब्दों को देखिए तो समय और समाज की सच्चाई दिखाई देगी। भक्ति कविता भाषा और कला की दृष्टि से उच्चतर कविता है। वह सिखाती है कि मनुष्य का सर किसी मनुष्य के समाने नहीं झुकता है। उन्होंने यह भी कहा कुछ सवाल ऐसे होते हैं जो विचार की दुनिया में हल नहीं होते, लेकिन कविता की दुनिया में आलोचक उसे तत्काल हल कर देते हैं। जिस कविता का पाठ न बदले वह महान कविता नहीं हो सकती।

प्रो.अरुण कमल ने यह भी कहा कि बिना दुख के प्रार्थना कैसी? प्रेम का कई संप्रदाय नहीं होता। प्रेम की शक्ति को कवियों ने मजबूत किया है। गौर करें तो पाएंगे कि प्रेम और सौंदर्य तो रहस्य में है। इसीलिए रात हमें आज भी आकर्षित करती है। उन्होंने यह भी कहा कि कबीर और रैदास विद्रोही कवि थे। उन्होंने वर्ण व्यवस्था पर तगड़ा प्रहार किया। इतना बड़ा आक्रमण पहले कभी नहीं हुआ। इसी तरह मीरा का समूचा काव्य स्त्री की स्वाधीनता का काव्य है। सबने अपने निजी आचरण से यह साबित किया कि किसी भी समाज में न्याय के लिए विद्रोह किया जा सकता है। इन महान कवियों ने सीधे-सीधे अपने समाज की कुरीतियों का विरोध किया। इन्हें पढ़ते हुए अतेंद्रीय अनुभव होता है। फिर इनके काव्य को भक्ति काव्य क्यों कहें?

आलोचक प्रो.माधव हाड़ा सम्मानित

स्मृतिशेष शुकदेव सिंह के 89 वें जन्मदिन पर आयोजित समारोह में साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए ख्यातनाम साहित्यकार प्रो.माधव हाड़ा को प्रो. शुकदेव सिंह स्मृति सम्मान से अलंकृत किया गया। पुस्कार के रूप में 11000 रुपये नकद और स्मृति चिह्न देकर उन्हें सम्मानित किया गया। मीरा बाई पर बेहद मानीखेज किताब लिखने वाले प्रो. हाड़ा देश के जाने-माने समालोचक हैं। सम्मान ग्रहण करने के बाद साहित्य प्रेमियों के बीच प्रो. शुकदेव सिंह के साहित्यक योगदान की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि परंपरा का मूल्यांकन करने में उन जैसे आचार्यों का योगदान हमेशा स्वीकार किया जाएगा। उन्होंने कहा कि पिछले दो तीन दशकों में जो औपनिवेशिक ज्ञान परंपरा हावी हुई है उसने भक्ति काव्य को समझने की देशज शैली को प्रभावित किया है। कबीर का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि वह कभी भी हमारे यहां जातीय मुद्दा नहीं रहे, लेकिन औपनिवेशिक मानसिकता ने उन्हें भी जाति के सवाल में खड़ा कर दिया।

इससे पहले विषय की प्रस्तावना रखते हुए प्रो. आशीष त्रिपाठी ने कहा कि पिछले तीन दशकों से भक्ति काव्य को अपने अपने सामाजिक-राजनीतिक एजेंडे के रूप में पढ़ने और उसे व्याख्यायित करने की परंपरा विकसित हुई है। इसलिए भक्तिकाव्य जिन प्रगतिशील मूल्यों और समानता के भावों पर बल दिया है, उसे आज के दौर में बार-बार उद्धृत करने की ज़रूरत है।

समारोह में स्वागत वक्तव्य प्रो. मनोज सिंह ने दिया। उन्होंने कहा कि बड़े साहित्यकारों और अध्येताओं के जन्मदिन और उनकी स्मृति को मनाना संस्कृति और साहित्य के भीतर लोकतंत्र के दायरे का विकसित करना है। पहले राजनीति और संस्कृति में दलित उभार नहीं था, लेकिन प्रो.शुकदेव उनके साहित्यिक योगदान को मजबूती दी। वह मानते थे कि कबीर और रैदास बनारस में उगे हुए फूल हैं, इसलिए दोनों कवियों के विचार में बनारस में विचार हैं। बनारस की समूची क्रांति उनकी कविताओं में भी परिलक्षित होती है।

समारोह में प्रो. हाड़ा द्वारा संपादित कालजयी कवि और उनके काव्य शृंखला की छह पुस्तकों अमीर खुसरो, कबीर, रैदास, तुलसीदास, सूरदास और मीरा पर प्रकाशित पुस्तकों का विमोचन किया गया। इस मौके पर हिंदी की प्रसिद्ध लघु पत्रिका बनास जन के ताजा ‘मध्यकालीन आख्यान’ विशेषांक लोकार्पण भी अतिथियों ने किया। इस अवसर पर प्रो अवधेश प्रधान, प्रो. बलिराज पांडेय, प्रो. चंद्रकला त्रिपाठी, प्रो. वशिष्ट नारायण त्रिपाठी, प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल, प्रो. प्रभाकर सिंह आदि उपस्थित रहे। धन्यवाद ज्ञापन डॉ भगवंती सिंह ने एवं अतिथियों का परिचय डॉ प्रज्ञा पारमिता ने दिया। कार्यक्रम का संचालन डॉ महेंद्र प्रसाद कुशवाहा ने किया।

कौन हैं प्रो.माधव हाड़ा?

प्रो.शुकदेव सिंह स्मृति सम्मान से अलंकृत प्रोफेसर माधव हाड़ा मध्यकालीन साहित्य के गंभीर अध्येता और आलोचक के रूप में ख्यात हैं। वे मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर में हिंदी के आचार्य के रूप में कार्यरत रहे हैं। प्रोफेसर हाड़ा भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला में फेलो भी रह चुके हैं। उनकी प्रमुख मौलिक कृतियां देहरी पर दीपक (2021), जिनविजय (2016), पचरंग चोला पहर सखी री (2015), सीढ़िया चढ़ता मीडिया (2012), मीडिया,साहित्य और संस्कृति (2006), कविता का पूरा दृश्य (1992) और तनी हुई रस्सी पर (1987) प्रकाशित हैं।

मीरा पर केंद्रित उनकी बहुप्रशंसित पुस्तक पचरंग चोला पहर सखी री’ का अंग्रेजी में ‘Meera vs Meera’ नाम से अनुवाद भी हो चुका है। प्रोफेसर हाड़ा ने अपनी इस पुस्तक में मीरा के जीवन, उनके समय और कविता को लेकर प्रचलित हो चुकी कई अवधारणाओं का खंडन करते हुए कई नई अवधारणाओं का विकास करते हुए मीरा के बारे मे नई स्थापनाएं दी हैं। उनकी यह पुस्तक मीरा के अध्ययन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हुई है और इसे हिंदी के अध्येताओं-आलोचकों ने खुले मन से स्वीकार किया है। प्रोफेसर हाड़ा साहित्य अकादेमी के साधारण परिषद के सदस्य और हिंदी परामर्शदात्री समिति के सदस्य के रूप में 2012-2017 में अपना योगदान दे चुके हैं। उनके लेखन के लिए उन्हें 2012 में प्रकाशन विभाग भारत सरकार के भारतेंदु हरिश्चन्द्र सम्मान और 1990 में राजस्थान साहित्य अकादमी के ‘देवराज उपाध्याय आलोचना पुरस्कार’ से नवाजा जा चुका है।

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