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जानी-मानी वायलिनिस्ट प्रो.मंजू कुमार पहुंची अशोका इंस्टीट्यूट, कहा, “शास्त्रीय संगीत सागर, तो पाश्चात्य संगीत उसके बुलबुले”

ashoka varanasi

भारती संगीत पर पश्चिम का न कोई असर पड़ा है और न ही आगे पड़ेगा
वायलिन ऐसा वाद्य यंत्र है जो संगीत रसिकों की आत्मा को छू लेता है

वाराणसी। इंजीनियरिंग और प्रबंधन की शिक्षा देने वाले पूर्वांचल के अग्रणीय संस्थान अशोका इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी एंड मैनेजमेंट (Ashoka Institute Of Technology And Management) में देश जानी-मानी फनकार डा.मंजू कुमार ने कहा कि शास्त्रीय संगीत सागर है तो पाश्चात्य संगीत उसके बुलबुले हैं। भारतीय संगीत पर पश्चिम का न कोई असर पड़ा है और न ही आगे पड़ेगा। मैं विदेशी वाद्य यंत्र वायलिन को बनारसी अंग में बजाती हूं, ताकि वो संगीत रसिकों की आत्मा में गहराई से अपना प्रभाव पैदा कर सके।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) में संगीत विभाग की अध्यक्ष डीन रही प्रो.एम.राजम् से वायलिन की शिक्षा हासिल करने वाली डा.मंजू कुमार की गायकी अंग के वादन में जैसी मिठास और करुणा है, उसे सुन कर ही अनुभव किया जा सकता है। उनके वादन में कोई चमत्कारिक लटके-झटके नहीं, बल्कि सादगी और तन्मयता है। सुनने वालों को ऐसा प्रतीत होता है, मानो वायलिन के तंत्र बजते नहीं बल्कि गा रहे हों। डा.कुमार कहती हैं, “हमने बीएचयू से सांख्यिकी में एमएस-सी और वायलिन की पढ़ाई साथ-साथ की। बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएचडी किया। बाद में बच्चों को पढ़ाया भी। मौजूदा समय में मैं सिर्फ वायलिन बजा रही हैं और नई पीढ़ी को शास्त्रीय संगीत से जोड़ने के लिए मुहिम चला रही हूं। जानती हूं कि शास्त्रीय संगीत की विधा स्थायी है। संगीत की बाकी विधाओं से इसकी तुलना करना उचित नहीं है। नई पीढ़ी भी इस विधा को अपना रही है और उसमें कई प्रतिभाशाली निकल रहे हैं। विदेशों में वायलिन के प्रति संगीत प्रेमियों में जबर्दस्त दिलचस्पी है। मुझे यह कहने में गुरेज नहीं है कि शास्त्रीय संगीत का भविष्य उम्मीद से ज्यादा बेहतर है।”
बीएचयू से वायलिन में महारत हासिल करने वाली डा.मंजू कहती हैं, “बनारस पहले से ही सांस्कृतिक विरासत का धनी रहा है और अब भी है। सांस्कृतिक विरासत की हिफाजत आम लोगों को ही करनी है। वायलिन तो अब मेरी नसों में रच-बस गई है। जब तक जीवन है इसे बढ़ावा देने की कोशिश करती रहूंगी। इस विरासत को बढ़ाने की जिम्मेदारी हम जैसे लोगों के कंधों पर ही है। अपने गुरु डॉ. एम.राजम् को याद करते हुए डा.मंजू कहती हैं, उनके वायलिन तंत्र बजते ही नहीं गाते भी हैं। वह वायलिन जैसे पाश्चात्य वाद्य पर उत्तर भारतीय संगीत पद्यति को गायकी अंग में वादन करने वाली प्रथम महिला स्वर-साधिका हैं। गायकी अंग में वायलिन-वादन की शैली उनकी विशेषता भी है और उनका अविष्कार भी।
डा.मंजू कुमार ऐसी फनकार हैं जिन्होंने अपनी सुरीली तानों को देश भर में फैलाने में जुटी हैं। इनके हाथ जब वायलिन पर थिरकते हैं तो जीवंत हो उठते हैं। डा.मंजू और उनकी वायलिन सचमुच एक दूसरे से मजबूती से गुंथी हुई हैं। वायलिन जब उनके हाथ में आती है तो वह बेहद मर्मस्पर्शी हो जाती है और उसमें से भारतीय आत्मा निकलकर आती है।


डा.कुमार अपनी कामयाबी का श्रेय अपने पति प्रो.अंजनी कुमार को देती हैं। इनके पति बड़ोरा स्थित जनरल मोटर्स के पहले वाइस प्रेसिडेंट हुआ करते थे। प्रो.अंजनी कुमार के प्रोत्साहन से उन्होंने सोशल साइंस की पढ़ाई की और इसी बात पर शोध किया कि पुरुष प्रधान समाज में बेटों की चाहत में जनसंख्या कैसे बढ़ती जा रही है। वह कहती हैं, “बेटों की चाहत में लोग बेटियां दर बेटियां पैदा करते चले जाते हैं। औरतों की तो कोई सुनता ही नहीं। समाज में जागरूकता पैदा करने के लिए हमने एक किताब लिखी है, ‘लिसेन टू मी’, जिसमें औरतों की मौजूदा स्थिति को बेबाकी के साथ उकेरा है। मेरी दूसरी पुस्तक है ‘मच लेटर’। प्रोफेशनल कंम्युनिकेशन में मेरा प्रिय विषय रहा है। शिक्षण संस्थाओं में आज भी बतौर गेस्ट लेक्चर देती हूं।”
अशोका इंस्टीट्यूट की तारीफ करते हुए चर्चित वायलिनिस्ट डा.मंजू कुमार ने कहा कि कोई भी अच्छा शैक्षणिक संस्थान अच्छे मैनेजमेंट व शिक्षकों से बनता है। अशोका इंस्टीट्यूट में आकर कोई भी प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकता। यह शिक्षण संस्थान देश का भविष्य संवार रहा है और युवाओं को श्रेष्ठ नागरिक बनाने में अहम भूमिका अदा कर रहा है। अशोका इंस्टीट्यूट पहुंचने पर निदेशक डा. सारिका श्रीवास्तव ने वायलिनिस्ट डा.मंजू कुमार का स्वागत किया। डा.कुमार जल्द ही इस इंस्टीट्यूट में अपना परफारमेंस देंगी।

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